Thursday, October 14, 2010

'मीडिया' अंदर और बाहर

 आजकल जितनी सिद्दत से मैं एक मोहतरमा की तलाश कर रहा हूं उतनी ही सिद्दत से चंद दिनों पहले तक मीडिया की नौकरी केलिए प्रयासरत रहता था। बतौर ट्रेनी एक मीडिया हाऊस में नौकरी मिल भी गई हैं। हालांकि मैं यहां स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि यह नौकरी मेरी प्रतिभा के बदौलत नहीं मिली हैं अलबत्ता जुगाड़ ही अंतत:  काम आया।  यदि जुगाड़ ही प्रतिभा है तो क्षमा कीजिएगा। लेकिन इसे नियति  कहे या दुर्भाग्य. महज़ एक पखवाड़े में ही ऐसा मोहभंग हो गया कि मैं बता नहीं सकता। बस यूं समझ लीजिए की मरता क्या नहीं करता वाली मन:स्थिति में काम कर रहा हूं। मेरी इस मनोदशा के पीछे कई कारण सक्रिय है । बहरहाल इसकी इसकी एक बानगी आपको बताना चाहूंगा। नियुक्ति के पहले ही दिन मेरे एक कलिग ने मुझ से पूछा कहॉ से हो बंगाल या उड़ीसा? दूसरा प्रश्न था क्या नाम है तुम्हारा ?  लेकीन इतने भर से उसकी जिज्ञासा शांत नहीं हुई तो  उसने मेरा सर नेम पूछ    डाला । उसकी मंशा मेरी जाति जानने की थी । खैर, मैनें अपनी जाति भी उसे बताई। इसके पहले की मैं राहत की सांस लेता एक सवाल फिर मुझ से पूछ गया यहॉ किसके रेफरेंस से आए हो? अगले ही दिन से न चाहते हुए भी एक खास लॉबी के तहत चिन्हित किया जाने लगा।
                   इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से कभी पाला नहीं पड़ा था इस वजह काफी दिक्कतें आ रही है।  पंद्रह दिनों में बमुश्किल एक स्क्रिप्ट लिखने को मिला जब दिखाया तो प्रतिक्रिया मिली अच्छा अखबारी लिख लेते हो। अब आप ही बताएं मीडिया के इस समाजशास्त्र में अपने वजूद को कैसे संभाला जाए? फिलवक्त बंदा खुदा से यही गुज़ारिश करता है कि काश मेरे सीनियर को ये बात समझ में आ जाती की मॉ के पेट से ही कोई सीख कर नहीं आता अगर वह आया है तो वह निश्चय ही अपवाद होगा।       

1 comment:

  1. प्रभात जी आप ने मीडिया की कटु सच्चाई बयां की है कि आज यदि कोई फ्रेशर अपनी नौकरी के लिए जाता है तो उसकी टैलेंट की जांच तो होती ही है साथ ही उसके क्या लिंक हैं ये भी जानना जरुरी समझा जाता है और किसने उसे उस मीडिया घर के दरवाजे पर भेजा है यह भी जनना आवश्यक समझा जाता है| आखिर उस मीडिया में जो सभी को बेनकाब कर सच दिखाने की बात करता है उसके अंदर ही यह धमाचौकड़ी क्यों है क्या यह सही ही है की जो दीपक सारी दुनिया को उजाला देता है उसके खुद के आँगन में इतना अँधेरा है|

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