Sunday, August 29, 2010

बात केवल वेतन वृद्धि कि नहीं है

क्या गजब की लामबंदी  है. ऐसी  लामबंदी  संसद के गलियारे में  शायद ही देखने को मिलती है। हमारे माननीय  सांसदों ने वेतन वृद्धि के मसले पर  जो एकजुटता प्रदर्शित  की है वह  वाकई  काबिले  तारीफ है। वेतन वृद्धि आवश्यक भी है। इस पर किसी तरह की हाय तौबा बेमानी है. बाबुओं  की पगार बढ़ी है तो इनकी क्यों नहीं बढ़नी चाहिए। जनता की फ्री सेवा करने का कोई ठेका तो नहीं ले रखा है इन्होंने ?  कितनी तपस्या कितना अधापन करके तो यहाँ  तक पहुंचे हैं  बेचारे।
         वैसे भी हमारे सांसद जिस जीवन शैली को जीते है उससे उनके वेतन का कोई साम्य  नहीं है। ऐसे में वे अपने खर्च को किसी अन्य श्रोत से पाटने की कोशिश करते हैं  तो बुरा क्या है? वैसे आज कल गलत  कुछ भी नहीं होता है जो हमारी नज़र में गलत होता है वह उनके लिए  पालिटिकली करेक्ट होता है।
        लेकिन बात केवल वेतन वृद्धि तक सीमित होती तो कोई आपत्ति नहीं थी. साठ एक हजार से देश के बजट पर कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ता. यहाँ सांसदों को प्रदत्त  अन्य सुविधाओं पर ध्यान देने की जरुरत है। मसलन ऑफिस खर्च, यात्रा भत्ता ,आवासीय सुविधा ,फ्री रेल एवं वायुयान खर्च इत्यादी। वेतन  और भत्ते के साथ-साथ इन सुविधाओं का मौद्रिक आकलन किया जाए तो ये रकम वेतन के मुकाबले कई गुणा अधिक  साबित होंगे। बावजूद इसके यह इनकार नहीं किया जा सकता कि दुनिया के अन्य देशों में सांसदों को मिलने वाले पारिश्रमिक एवं सुविधाएँ हमारे सांसदों कि अपेक्षा अधिक है। लेकिन इस प्रकार कि एक एकपक्षीय तुलना करना क्या बेमानी नहीं होगी? हमारे सांसद क्या कभी ये जानने कि कोशिश किये हैं  कि हाउस ऑफ़ कॉमंस अथवा कांग्रेस के सदस्य अपनी जनता के प्रति कितने जवावदेह होते हैं  उनके समस्याओ के प्रति कितने संजीदा होते हैं। हम अपने जनप्रतिनिधियों से इसतरह कि अपेक्षा कर भी नहीं सकते। क्योंकि समय के साथ-साथ राजनीतिक मूल्य भी बदलें  है। राजनीति अब समाज सेवा का विषय नहीं रहा बल्कि एक पेशा हो गया है।
          हमारे नुमाइंदों की जनता के बीच आज जो छवि बनी हुई है उसे जनता के शब्दों में उद्धृत किया जाय तो बिल्कुल असंसदीय प्रतीत होगी। आश्चर्य तो तब होता है जब अपने को गरीबों का मसीहा कहने वाले जनप्रतिनिधि इस तरह के अभियान का नेतृत्व कर रहे होते हैं । जिनका जनाधार आज भी ऐसे लोगो पर टिका है जिसे दो वक्त कि रोटी शायद हीं मयस्सर होती है। फिलहाल अमीर नेता कि गरीब  जनता यह उम्मीद करती है कि आगे भी देश हित के किसी अन्य विधेयको पर  वे अपनी एक जुटता इसीप्रकार बनाए रखेंगे।